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जब मैंने उसे मोढेरा चलने के लिए कहा तो उसने मुझे ऐसे देखा कि धूप से मेरा सर फ़िर गया हो। शायद ऐसा कम होता होगा जब कोई २५ कि.मी. जाने के लिए ऑटो ले। उसका घूरना थोड़ा और सख्त हो गया जब मैंने उसे समझाया कि हम २५ कि.मी. जाएंगे और वहां ४५ मिनट रुक कर वो मुझे वहीं वापिस लाके छोड़ देगा जहाँ हम तब खड़े थे।

“और कौन जा रहा है साथ में?”
“बस मैं ही हूँ अकेला।”
“कब जाना है?”
“अभी।”
“आप सच में तैयार हैं?”
“हाँ भाई।”
“तो चलते हैं फिर!”

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तो फिर हम चल दिए मोढेरा के सूर्य मंदिर जो मेहसाणा, जहाँ मेरी छोटी बहन रहती है, से १ घंटे से भी कम वक़्त की दूरी पर है। वैसे तो गर्मी काफी थी लेकिन एक नयी जगह को देखने का उत्साह ३४- डिग्री तापमान पे भारी पड़ा। एक जगह रुकना पड़ा क्योकि हमारे ड्राइवर साहेब को गैस का सिलिंडर लेना था घर के लिए। “बीवी का हुकुम है सर, नहीं ले गया तो आज रात खाना नहीं मिलेगा।” अब बीवी के हुक्म के सामने कौन जिरह करता। फिर सिलिंडर लिया हमने और निकल लिए रास्ते पर।

सूर्य मंदिर

कुछ तो शायद गर्मी की वजह से और कुछ दोपहर की मेहरबानी, जब हम मंदिर पहुंचे तो सब लगभग खाली ही था।  मैंने टिकट खिड़की से एक टिकट लिया और दरवाज़े से  अंदर हो लिया।  एक बड़े से हरे भरे लॉन और पेड़ों ने थोड़ी राहत दी।  सुना है हर साल इसी लॉन में एक बड़ा सांस्कृतिक समारोह होता है। सूर्य कुंड की सीढ़ियों पर एक प्री-वेडिंग फोटोशूट चल रहा था और मैं वो तमाशा देखने थोड़ी देर रुक गया। क्या क्या करते हैं लोग आज कल इंस्टाग्राम के चक्कर में ! थोड़ा आगे एक टूरिस्ट गाइड एक छोटे परिवार को मोढेरा की वास्तुकला की बारीकियां समझा रहा था और वो बड़े ध्यान से सुन रहे थे। अच्छा लगता है जब किसी को हमारी हमारे इतिहास और विरासत में रूचि लेता हुआ देखता हूँ। बहरहाल, धूप ने याद दिलाया की मुझे लोगो से ध्यान हटाकर मंदिर भी देखना है, तो मैं भी अपने मिशन पर लग गया।

अभी मैंने बस सभामंडप ही देखा था कि एक पूरी बस भरके टूरिस्ट आ पहुंचे और माहौल एकदम बदल गया।  वैसे मुझे आज उनका आना बुरा नहीं लगा क्योकि पहले सब कुछ बड़ा सूना लग रहा था। एक बुजुर्गवार सेल्फी लेना चाहते थे लेकिन अपने स्मार्टफ़ोन से परेशान से दिख रहे थे। उनकी कुछ तसवीरें ली और बदले में आशीर्वाद भी मिल गया। मिलनसार होते हैं गुजराती लोग…

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सूर्य कुंड तालाब और उसके पीछे सभामंडप 

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सभामंडप और कीर्ति तोरण के अवशेष 

मोढेरा सूर्य मंदिर का इतिहास 

मोढेरा क्षेत्र का सबसे पुराना जिक्र पुराणों में मिलता है जब इसे मोहरक के नाम से जाना जाता था, मोहरक माने मुर्दों का टीला। सदी दर सदी बनते और उजड़ते बसावटों की वजह से शायद इसे ऐसा नाम मिला होगा। ग्यारहवीं सदी में यहाँ चौलुक्यों या सोलंकियों का राज था जिनकी राजधानी नज़दीक ही पाटन में थी। सोलंकी प्रसिद्द निर्माणकर्ता थे और उनके बनाये हुए मंदिरों के अवशेष आज भी पाटन, मोढेरा, दिलवाड़ा और सोमनाथ में लोगो को चकित करते हैं।

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मोढेरा का सूर्य मंदिर भारत के उन कुछ गिने चुने मंदिरों में से है जो सूर्य देवता को समर्पित हैं। असल में, यह कोणार्क के अधिक विख्यात सूर्य मंदिर से भी ज्यादा प्राचीन है।

१०२४-२५ ईस्वी के आसपास महमूद ग़ज़नवी ने गुजरात पर हमला किया और मोढेरा की तरफ बढ़ा।उस समय के सोलंकी राजा भीमदेव के २०,००० सैनिकों ने गज़नी की सेना को रोकने का प्रयास किया लेकिन असफल रहे।  ऐसे कहा जाता है की भीमदेव ने इस सूर्य मंदिर का निर्माण उसी युद्ध की स्मृति में कराया। मंदिर के  प्रांगण में मिले एक शिलालेख के अनुसार इसके निर्माण का समय १०२६-२७ ईस्वी बताया गया है।  कुंड तो शायद ज्यादा पुराना है लेकिन सभामंडप का निर्माण, बहुत बाद में, शायद बारहवीं सदी में जाकर हुआ।

आतंरिक कलह और प्राकृतिक आपदाओं की वजह से सोलंकियों के पतन के साथ मोढेरा का सूर्य भी अस्त होने लगा। मंदिर पर सबसे बड़ा आघात तब हुआ जब अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और मोढेरा तक आ गया। मंदिर को लूटने के बाद भी जब उसका मन नहीं भरा तो उसके आदेश पर सैनिकों ने बारूद लगा कर मंदिर के गर्भगृह को उड़ा दिया। इस तरह उत्तर भारत के हज़ारो मंदिरों की तरह यह शिल्पकला का या बेहतरीन नमूना भी बर्बर आतताइयों के हाथों नष्ट हो गया।

मोढेरा सूर्य मंदिर का स्थापत्य 

मोढेरा का सूर्य मंदिर सोलंकी स्थापत्यकला का एक सुन्दर नमूना है।  पत्थरों पर बारीक नक्काशी की गयी है और गारे का भी प्रयोग हुआ है। मंदिर के तीन मुख्य भाग – गर्भगृह, गूढ़मंडप और सभामंडप, आगे बने हुए कुंड के साथ एक सीधी रेखा में बने हुए हैं।  पूरी रचना की समरूपता देखने लायक है।

बगल में दिए हुए नक़्शे से आप मोढेरा सूर्य मंदिर का प्रारूप समझ सकते हैं। सबसे पहले कुंड है, उसके बाद सभामंडप, फिर गूढ़मंडप और सबसे अंत में गर्भगृह। सबकुछ एक सीध में बना है। धन्यवाद् ए. के. फोर्बस साहेब का इस नक़्शे के लिए।

सूर्यकुंड

सूर्यकुंड (या रामकुंड) पत्थरों से बना हुआ एक चौकोर कुंड है जिसमे नीचे जाने के लिए सीढ़ियां इसके चार तलों से होकर जाती हैं। सीढ़ियों का ज्यामितीय तालमेल और काम की सफाई देखने लायक है। कुंड के तलों और कोनो पर छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं जो अलग अलग देवी देवताओं को समर्पित हैं।  मैं विष्णु , गणेश, नटराज, और शीतला के मंदिर पहचान पाया। इन मंदिरों पे भी काफी अच्छी नक्काशी की हुई है। ऐसा कहते हैं कि सूर्य कुंड में कभी १०८ छोटे बड़े मंदिर बने हुए थे, लेकिन समय के थपेड़ों से शायद एक दर्ज़न ही अब बच सके हैं।

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मंदिर  और कुंड का नक्शा, सूर्य मंदिर, मोढेरा, गुजरात, भारत। ए. के. फोर्बस, १८५६ Wikicommons

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कीर्ति तोरण

सभामंडप के सामने कभी एक कीर्ति तोरण हुआ करता था जिससे होकर लोग सूर्यकुंड में उतारते थे। तोरण के ऊपर का भाग तो अब नष्ट हो चुका है, हाँ दोनों खम्भे अभी भी खड़े हैं। खम्भों पर किया गया पत्थर का काम सभामंडप के खम्भों से बहुत मिलता जुलता है और ऐसा लगता है कि दोनों को एक ही समय बनाया गया था।  

सभामंडप

सभामंडप ( या नृत्यमंडप ) ५२ सुन्दर खम्भों पर टिका हुआ एक मोहक हॉल है जिसकी बाहरी नक्काशी देखने लायक है।  इसकी छत कभी गुम्बद के आकार की होगी जो इन खम्भों पर टिकी होती थी।  हर खम्भा वर्ष के एक हफ्ते को दर्शाता है और उनपर रामायण, महाभारत और पुराणों के दृश्य खुदे हुए हैं।  अगर आप ध्यान से देखें तो उनमें से कहीं दृश्यों को पहचानना मुश्किल नहीं। मंडप की तरह खम्भे भी अष्टकोणीय हैं। गोल आधार के ऊपर बने इन खम्भों पर यक्षों और नर्तक- नर्तकियों की मूर्तियां उत्कीर्ण है और उनके चेहरों की भाव- भंगिमा को बड़ी खूबसूरती से तराशा गया है।

कहा जाता है कि सभामंडप का शिखर एक पिरामिड के आकार का था, वैसे अब उसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। अंदर की छत गोल है और तहों में एक गुम्बद की तरह ऊपर बढ़ती है। सुन्दर फूल पत्तियों की नक्काशी से सजी इस छत का भार अष्टकोणीय आकार में लगे हुए मेहराब उठाते हैं।  

सभामंडप का बाहरी हिस्सा बहुत ही बारीक नक्काशी और सुन्दर प्रतिमाओं से सजा हुआ है।  निचे का भाग एक उलटे कमल की तरह है जिस पर तरह तरह के फूल और बेल बूटों का काम किया हुआ है। ऊपर के भाग पर नर्तकियों और देवी देवताओं की प्रतिमाएं लगी हैं।  सबसे ऊपर का हिस्सा बेल बूटों और कामुक मूर्तियों से सुसज्जित है। देखा जाए तो मोढेरा के मंदिर की नक्काशी खजुराहो के मंदिरों से काफी मिलती जुलती है।  

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सभामंडप की छत, खम्भों और बाहरी दीवारों पर की हुई उत्कृष्ट नक्काशी 

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मंदिर 

मुख्य मंदिर दो भागों में बटा है – गूढ़मंडप और गर्भगृह। गूढ़मंडप आयताकार और विमान शैली में बना हुआ है जिसकी चारों तरफ बाहर की तरफ निकले हुए हिस्से हैं।  छोटी भुजाओं बाहर से आने और मंदिर की ओर जाने के द्वार बने हुए हैं और लम्बी भुजाओं पर जालीदार खिड़कियां बनी हैं जिनमे पत्थर का बारीक काम किया हुआ है।  शिखर तो खिलजी की कारस्तानियों से कब का बर्बाद हो चुका है।

गर्भगृह मंदिर का सबसे अंदरूनी  भाग है जहाँ कभी भगवन की प्रतिमा हुआ करती होगी।  फ़िलहाल तो खाली है। गर्भगृह का आकर चौकोर है और बाहर के मुकाबले इसकी दीवारों पर नक्काशी कम है।  द्वार पर आदित्य के बारह चेहरे, साल के बारह महीनो के लिए, बने हुए हैं।  खम्भों पर देवी देवताओं और यक्षों के साथ साथ प्यार में मग्न जोड़ों की आकृतियां बनी हैं।  यह देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ क्योकि मैंने कभी मंदिरों के अंदर के हिस्सों पे ऐसा नहीं देखा।  लगभग सारी प्रतिमाएं थोड़ी बहुत टूटी हुई हैं।  ऐसा कहते हैं की गर्भगृह को ऐसा बनाया गया था कि सौर विषुर के दिन सूर्य की पहली किरण सीधा इसे जगमग करती थी।  

मंदिर के बाहर की दीवारों पर बहुत खूबसूरत सजावट है।  सबसे निचे का हिस्सा एक कमल के आकर में बना है जिसके ऊपर तब के लोगों का दैनिक जीवन दर्शाया गया है। सूर्य और बाकी देवी देवताओं की मूर्तियों भी काफी हैं।  बीच वाली पट्टी पर नर्तक और यक्ष-यक्षी बने हुए हैं जो अलग अलग वाद्ययंत्रों और नृत्य मुद्राओं के साथ अच्छे दिखते हैं।  सूर्य की ज्यादातर प्रतिमाएं उन्हें एक हाथ में कमल लिए सात घोड़ों के रथ पर खड़े दिखाती हैं, जो कोणार्क की तरह ही है। 

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गर्भगृह के अंदर लोग बड़े ध्यान से गाइड की कहानी सुन रहे थे कि ये मंदिर एक ज़माने में कितना विख्यात था और कैसी पैशाचिकता के साथ इसे बर्बाद किया गया। सुन के ही घृणा होती है खिलजी और उसकी मानसिकता से।  

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मुख्य मंदिर का सुन्दर बाहरी हिस्सा, सजे हुए खम्भे और ध्वस्त शिखर

चलते चलते 

मोढेरा का सूर्य मंदिर मेरी उम्मीदों से कहीं बढ़ चढ़ कर निकला। कोणार्क और खजुराहो के बाद मुझे ऐसा लगता था की मैंने उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य कला में जो भी देखने लायक है वो देख लिया है।  मोढेरा ने हलके से मुझे याद दिलाया कि भारत कितना बड़ा है, और अभी देखने को कितना कुछ बचा हुआ है।  

एक तरफ जहाँ मैं मंदिर की खूबसूरती को देख कर मुग्ध हुआ वहीँ दूसरी तरफ इसके विध्वंस की कहानी ने मन को वतृष्णा से भर दिया। कोई जरुरत नहीं थी कला के इतने सुन्दर स्वरुप को बर्बाद करने की, सिर्फ इसलिए की किसी आसमानी किताब को किसी ने अपने अंदाज़ में पढ़ और समझ लिया। भारत के सीने पर लगे हुए घाव बहुत गहरे हैं और उनमे अभी भी टीस उठती है। काश ऐसा न हुआ होता।  

खैर, आज खिलजी और उसके खानदान का नाम-ओ-निशान मिट चुका है, और कोई उनकी कब्रों पे थूकने भी नहीं जाता। मोढेरा का सूर्य मंदिर, भग्न लेकिन फिर भी खड़ा हुआ, आज भी सुबह की किरणों से जगमगाता है।  शायद यही प्रकृति का इन्साफ है।  

अभी बहुत घूमना है गुजरात में, अगली बार कहीं और जाऊँगा और वहां की कहानियां सुनाऊंगा। तब तक के लिए, આવ્જો …

जानकारी 

  • स्थान: मोढेरा, गुजरात, भारत 
  • सड़कमार्ग से: अहमदाबाद (१०१ कि.मी.), मेहसाणा (२६ कि.मी.)
  • रेल से: मेहसाणा रेलवे स्टेशन (२६ कि.मी.)
  • हवाईमार्ग से: अहमदाबाद (१०१ कि.मी.)
  • सही मौसम: अक्टूबर से मार्च
  • खुलने का समय: ७ बजे सुबह से ६ बजे शाम तक 
  • प्रवेश शुल्क: २५ रुपये (भारतीय पर्यटक)
  • कैमरा शुल्क: मुफ्त 
  • भोजन: परिसर में स्थित रेस्टोरेंट 
  • मुख्य समारोह: मोढेरा नृत्य उत्सव (जनवरी के तीसरे हफ्ते)
  • लाइट एंड साउंड शो: नहीं 
  • पास में अन्य: पाटन 

Modhera Sun Temple