बाबा आदम के ज़माने की एक तस्वीर मुझे लखनऊ की रेजीडेंसी तक खींच लायी। १८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद किन्ही फेलीको बेटो ने ली थी ये तस्वीर जिसमे लखनऊ की एक इमारत के सामने का हिस्सा तोप के गोलों से छलनी दीखता है।  दो घुड़सवार खड़े हैं. इमारत के सामने की ज़मीन लखनऊ की लड़ाई में मारे गए बाग़ियों के कंकालों से पटी हुई है।

इसके बाद तो जितना मैं  उस दौर के बारे में पढ़ता गया, लखनऊ जाने और तब की निशानियों को देखने की इच्छा बढ़ती गयी। इनमे सबसे ख़ास थी वहां की रेजीडेंसी जो एक तरह से जेहन में बस सी गयी। किस्मत से इस बार जब लखनऊ जाने का मौका मिला तो हवाई अड्डे से निकलते ही मैने ओला वाले भाईसाहब को रेसिडेन्सी चलने को कहा।  

लखनऊ रेजीडेंसी का इतिहास 

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लखनऊ रेजीडेंसी की नीव नवाब सआदत अली खान साहेब के जमाने में १७८० में रखी गयी थी। बक्सर की हार के बाद अवध कंपनी बहादुर के रहमो करम पर था और नवाब साहेब के ऊपर नज़र रखने के लिए कंपनी ने न सिर्फ एक अँगरेज़  रेजिडेंट को लखनऊ में रखने की मांग की, बल्कि उसका खर्चा भी उन्ही से लिया। करीब ३३ एकड़ में फैली हुई इस रेजीडेंसी में अफसरों के बंगले,रिहायशी मकान, खज़ाना, बारूदखाना, अस्तबल, हस्पताल ही नहीं, एक चर्च और एक इमामबाड़ा भी थे। बहुत सारी इमारतें बाद में फ़्रांसिसी मेजर जनरल क्लाउड मार्टिन (ला मार्टिनियर वाले) ने भी अपनी निगरानी में बनवायी।

रेजीडेंसी की बनावट शैली भारतीय, ईरानी और यूरोपिय शैलियों का मेल थी जिसमे उम्दा प्लास्टर का काम, बारीक नक्काशी और ऊँचे ऊँचे ग्रीको रोमन खम्भे शामिल थे। कुल मिलकर, १८५७ की गर्मियों तक रेजीडेंसी भारत के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक के सबसे ज्यादा नफ़ासत वाले इलाकों में से एक थी।

१८५७ का विद्रोह 

“कभी कभी हमें कुछ कीमती  खोना पड़ता है , और जरुरी नहीं कि उसके बदले में कुछ वैसा ही कीमती मिले। कभी कभी किसी का खोना की उसकी असली कीमत है” 

– शहीद  हुसैन रज़ा 

१८५७ का साल आने से बहुत पहले से मुग़ल साम्राज्य अपनी आखिरी घड़ियाँ गईं रहा था। मुग़ल बादशाह एक मामूली पेंशनधारी बुजुर्ग बनकर रह चुके थे जिनकी तूती उनके महल के बाहर तक भी नहीं बोलती थी।  इस बात की उम्मीद भी कम ही थी की उनके शहज़ादों को उनके बाद दिल्ली की गद्दी नसीब होगी।  ईस्ट इंडिया कंपनी, जो कभी मुग़ल दरबार में हाथ जोड़ कर व्यापार करने की गुज़ारिश करती आयी थी, आज पूरे हिंदुस्तान की सिरमौर बन चुकी थी। किस्मत की इस उठा पटक से क्या किसान-जुलाहे और क्या राजे-जमींदार, सब के सब डरे हुए थे। अभी सात समंदर पार से आये हुए आकाओं को सलाम बजाने की आदत भी न पड़ पायी थी कि लालच में अँधा बना लार्ड डल्हौसि अपनी ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ से सबकी नींद हराम कर रहा था।

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छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

– सुभद्रा कुमारी चौहान, झाँसी की रानी

चित्र: मुग़ल बादशाह शाह आलम (१७५९-१८०६), रोबर्ट क्लाइव को दीवानी सौपते हुए, अगस्त १७६५ 

१८५७ के वसंत का हिंदुस्तान बहुत बेचैन था, जैसे बारूद के ढेर पर बैठा हुआ एक देश जिसे बस एक चिंगारी की जरुरत थी। मेरठ की छावनी में आख़िरकर मंगल पांडे ने वो तीली जला ही दी। ये आग बड़ी तेज़ी से फैली और ऐसी फैली की बिहार से दिल्ली तक अंग्रेजी राज की चूलें हिल गयीं।  बगावत की इस आंधी में यूँ अलमस्त रहने वाले लखनऊ ने खुद को बीचो बीच पाया और बागियों के साथ हो लिया। लड़ाई आर पार की थी और अपनी जायदादों से बेदखल हुए अवध के जमींदार पूरबिया पलटनों के विद्रोही सिपाहियों के साथ कंधे से कन्धा मिलकर लड़ रहे थे। अजीब सी बात है, जहाँ जमींदार एक खोये हुए माज़ी के लिए लड़ रहे थे, वहां सिपाही आने वाले वक़्त के सपने के लिए।

ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का

हुकुम  सिपाही बहादुर का।

३० जून आते आते सीतापुर और फैज़ाबाद की बागी पलटनें लखनऊ के उत्तर में जमा होने लगी और शहर में जगह जगह बग़ावत का झंडा बुलंद होने लगा। अवध के रेजिडेंट सर हेनरी लॉरेंस ने बाग़ियों को पीछे धकेलने के लिए हमला किया लेकिन कंपनी सेना की बड़ी हार हुई।  बच कर लौटे हुए कंपनी के अफ़सर और सिपाही रेजीडेंसी के अंदर आ जमे उनका पीछा करते हुए आ पहुंचे बागी।

अब जंग लखनऊ पहुंच चुकी थी और वहां की रेजीडेंसी थी उस लड़ाई का केंद्र बिंदु…

रेजीडेंसी की घेराबंदी 

१८५७ के विद्रोह की कहानी में लखनऊ की लड़ाई का बहुत महत्व है, और उसकी सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है रेजीडेंसी की घेराबंदी।

३० जून १८५७ से १४ नवंबर १८५७ तक ८८५ अँगरेज़ अफसर और सिपाही, ७१२ हिंदुस्तानी सिपाही, १५३ स्वयंसेवक और करीब १२८० नागरिक रेजीडेंसी के अंदर घेराबंदी में फसे रहे। बाहर थे करीब ८००० बागी सिपाही जो बहादुर शाह ज़फर और बेगम हज़रत महल के झंडे तले लड़ रहे थे।  ५ महीने चली इस घेराबंदी का अंत बागियों की हार से हुआ, लेकिन तब तक अंग्रेजों की तरफ से करीब २५०० जानें जा चुकी थी। बागियों का कितना नुक्सान हुआ इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।

बगावत कुचले जाने के बाद कमोबेश आधे से ज्यादा लखनऊ अंग्रेज़ों के बदले की आग में तबाह हो गया, कभी न उबर पाने के लिए।  रेजीडेंसी भी इतनी बुरी हालत में थी की उन्होंने उसे दोबारा बसाने की कोशिश नहीं की।  रेजीडेंसी के खँडहर आज भी शायद उसी हालत में हैं जैसा १८५७ के उस खूनखराबे के बाद थे।  

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ये वो तस्वीर है जो मुझे रेजीडेंसी लायी थी।  वैसे ये सिकंदर बाग़ की हैं, लेकिन अब फर्क नहीं पड़ता। जरा उन कंकालों को देखिये।  फेलिस बातो, १८५८। 

रेजीडेंसी पर आगमन 

खँडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी।  

उस सुबह रेजीडेंसी पहुंचने वाला शायद मैं पहला पर्यटक था।  वहां जमे रहने वाले प्रेमी जोड़े, जिनके लिए ये जगह थोड़ी बदनाम भी है, अभी तक शायद अपने मीठे सपनो में ही खोये हुए थे। मेरे लिए तो अच्छा ही था, कोई डिस्टर्ब करने वाला नहीं, बस मैं, जाड़े का हल्का कुहासा और चारो तरफ फैले हुए खँडहर। सिक्योरिटी वालों ने भी सुबह सुबह आ धमकने वाले अकेले इंसान को ज्यादा तवज्जो नहीं थी, बस कमरे का मुआयना किया और जाने दिया।  

तब से लेकर एक घंटे तक मैं रेजीडेंसी की ढही हुई दीवारों के बीच भटकता रहा। अपने अच्छे दिनों में इस जगह की शान कुछ और ही होगी। बड़ी शान्ति थी वहां, और हवा में थोड़ा दुःख; बड़ी त्रासदी और अनगिनत मौतें देखी है इन दीवारों ने। उन सबके बीच खड़े होक खुद को १८५७ के उन दिनों में ले जाकर महसूस करना कि कैसा होता होगा, ज्यादा मुश्किल नहीं होता।       

खैर, भावनाओं को लगाते हैं विराम और नज़र डालते हैं हिंदुस्तानी इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण पन्ने पर 

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कर्नल जॉन बैली के नाम पर बना हुआ बैली गार्ड गेट।  बैली साहेब जाने माने भाषाविद और अवध के पहले रेजिडेंट थे।  रेजीडेंसी को पहले बेली गारद भी कहते थे।

खज़ाना (द ट्रेज़री)

जैसे ही आप बैली गार्ड गेट से अंदर जाते हैं, ठीक आपकी दायीं तरफ है रेजीडेंसी का खज़ाना। इमारत के सामने एक संमरमर के पट्टे पर खुदी हुई इबारत लगी है, कंपनी के उन अफसरों और सिपाहियों की याद में जिन्होंने रेजीडेंसी को बचने में अपनी जान की क़ुरबानी दी। रेजीडेंसी के रक्षकों में बहुत सारे देसी सिपाही भी थे।

सारे सिपाही बागी नहीं थे और सारे बागी सिपाही नहीं, १८५७ सिर्फ एक सिपाही विद्रोह से कहीं ज्यादा था। 

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ट्रेज़री का काम १८५१ तक जाकर ख़त्म हुआ, और इसके निर्माताओं ने अवध और राजपूत शैलियों का प्रयोग किया। थोड़ा बहुत प्लास्टर अभी भी बचा हुआ है, शायद यह याद दिलाने को कि कितने दिल से इसे बनाया गया होगा।  एक अजीब बात यह है कि ट्रेज़री के एक हिस्से को उन बदनाम एनफील्ड गोलियों को बनाने के लिए इस्तेमाल में लाया गया था जिनसे मेरठ में बगावत की आग भड़की।

सामने कर्नल एच एम् ऐत्केन की याद में एक स्तम्भ लगा है। १३ बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के इन अफसर ने लखनऊ की लड़ाई में बहुत बहादुरी दिखाई थी।  

डॉ फेरेर का बँगला 

ट्रेज़री से थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ है सर जोसफ फेरेर का बँगला। डॉ फेरेर जाने माने सर्जन थे और सांप के काटे के इलाज़ पर उन्होंने काफी काम किया था। रेजीडेंसी की घेराबंदी के समय उनका घर एक पनाहगार होने के साथ साथ अस्पताल भी था। इसी घर में ४ जुलाई १८५७ को चीफ कमिश्नर सर एच एम् लॉरेंस की मौत हुई।    

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Gone! are ye then all gone?
The good, the beautiful, the kind, the dear,
Passed to your glorious rest so swiftly on,
And left me weeping here.

Into the haven passed,
They anchor far beyond the scathe of ill;
While the stern billow and the reckless blast,
Are mine to cope with still.

– कैथरीन मैरी बर्टरम,  A Widow’s Reminiscences of the Siege of Lucknow, १८५८.

कैथरीन ने १८५७ में अपने पति और एकलौते बच्चे को खो दिया और उनकी डायरी हो लखनऊ की लड़ाई के दौरान लिखी गयी थी, बाद में एक किताब के रूप में छपी। १८५७ का यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ पढ़ने में आसान नहीं है। एक युद्ध के साथ आने वाली त्रासदी जो बूढ़े, औरतों, बच्चों को झेलनी पड़ती है उसका बयान दिल को बहुत दुखी करता है।  

यह डायरी पढ़ के मन भारी हो गया। बहुत मुसीबतें झेली थी इन लोगों ने। एक तरह से अँगरेज़ खुशकिस्मत रहे कि जो भी उनके साथ हुआ उसे लिखा गया, याद किया गया। उनके नाम पे संगमरमर की इबारतें लगायी गयी, उनकी याद में क्रॉस और स्तम्भ खड़े किये गए; और सबसे बड़ी बात – उन्हें दफ़न होने को दो गज़ ज़मीन मिली। दूसरी तरफ, हज़ारो बागी तो गुमनाम मरे, सिवा उनके नेताओं के उनकी कहीं कोई निशानी नहीं है।  

सिकंदर बाग की वो तस्वीर १८५८ में ली गयी थी, लखनऊ की लड़ाई ख़त्म होने के महीनों बाद। बागियों के नर कंकाल वही पड़े हुए थे जहाँ वो अपने विचारों के लिए लड़ते हुए मारे गए। उनकी पहचान, उनकी यादें, उनकी ज़िन्दगी, और उनकी मौत… सब खो गए…  

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दावतखाना (बैंक्वेट हॉल) 

रास्ते की दूसरी तरफ, ट्रेज़री के पीछे बना है दावतखाना या बैंक्वेट हॉल। पूरे रेजीडेंसी काम्प्लेक्स की शायद यह सबसे शानदार इमारत थी।  नवाब सआदत अली खान साहेब ने इसे साहबों की पार्टियों, और मेहमानों के मनोरंजन के लिए बनवाया था। उस ज़माने में विलायत से मंगाए गए चमचमाते हुए झाड़ फानूस इसकी ऊंची छतों से टंगे होते थे और दीवारों पे महँगी सजावट हुआ करती थी।  आज भी बीते वक़्त की शान-ओ-शौकत इसकी बड़ी की अंगीठी और संमरमर के बने हुए फव्वारे में झलक दिखला जाती है। पहली मंजिल का कुछ हिस्सा अभी भी बचा हुआ है लेकिन बाकी का ज्यादातर बमबारी में बर्बाद हो गया।   

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बैंक्वेट हॉल के खँडहर।  सुबह सुबह कुछ मॉर्निंग वाक वाले ही थे वहां।  

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बेगम कोठी और इमामबाड़ा 

नवाब नासिर-उद-दीन हैदर (१८०३-१८३७) की विलायती बेगम मल्लिका मुखरादाह की हुआ करती थी बेगम कोठी। जब नवाब साहेब का क़त्ल हो गया तो विलायती बेगम, उनकी अम्मी और सौतेली बहन अशरफ़ुन्निसा रेजीडेंसी में आ कर रहने लगे. उनकी कब्रें आज भी बेगम कोठी के अहाते में हैं।    

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रेजीडेंसी की सबसे अलहदा इमारतें हैं अशरफ़ुन्निसा की बनायीं हुई मस्जिद और इमामबाड़ा, शायद वो दो इमारतें जो पूरी तरह से अवधी शैली में बनी हुई हैं। वैसे तो इमामबाड़ा भी खँडहर हो चुका है, दोनों मीनारें ऊपर से टूटी हैं और नीचे भी हालत बहुत अच्छी नहीं, लेकिन फिर भी दूसरी कई इमारतों के मुकाबले काफी अच्छी हालत में है। बाकी की रेजीडेंसी की तरह  इमामबाड़ा भी बड़ा उदास दीखता है।  जब मैंने वहां टहल रहा था तो ऐसा लगा की शायद यहाँ अभी भी नमाज़ होती है, लेकिन कोई दिखा नहीं।

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रेजीडेंसी की इमारत

रास्ते के उस तरफ बैंक्वेट हॉल की तरफ मुँह किये हुए है रेजीडेंसी के खँडहर। इस शानदार इमारत को लखनऊ की सबसे ऊँची ज़मीन पर बनाया गया  जिससे पुरे शहर का नज़ारा दिखता होगा। अब तो बहुत बुरी तरह से तबाह हुआ एक खोल सा बचा है बस।

रेजीडेंसी तीन मंजिला हुआ करती थी लेकिन अब बस पहला माला ही बचा हुआ है। अंदर आने का रास्ता पूरब की तरफ बने एक पोर्टिको से होकर था।  अंदर एक बड़ा  सा हॉल आने वालों का स्वागत करता था, दोनों तरफ कई कमरे बने थे जो अफसरों के दफ्तर हुआ करते होंगे।  पहले माले पर एक बिलियर्ड रूम और एक लाइब्रेरी हुआ करती थी।  इस इमारत में तहखाने भी थी जो जंग के दौरान बंकर के रूप में इस्तेमाल हुए ।

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१८५७ में रेसिडेंसी पर भारी बमबारी हुई और काफी जानें गयीं। सर लॉरेंस, जिनकी बाद में मौत हो गयी, यही पर एक तोप के गोले से घायल हुए थे।  अब तो बस दक्षिण पूर्व का एक छोटा सा हिस्सा बचा है जो संग्रहालय बन गया है।  बदकिस्मती से जिस दिन मैंने वहां गया, संग्रहालय बंद था।  फिर कभी और…  

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रेजीडेंसी के सामने एक बड़ा सा लॉन है जहाँ सर हेनरी लॉरेंस की यादगार में एक बड़ा सा क्रॉस लगा है।  एक छोटा क्रॉस भी है जो संग्रहालय के आगे लगा है। छोटा वाला सर जॉन इंग्लिस और उनकी बीवी की याद में है। इंग्लिस साहेब ने सर लॉरेंस के मरने के बाद रेजीडेंसी की कमान संभाली थी और आखिर तक डटे रहे।  उनकी मौत १८६२ में इस लड़ाई में हुई चोटों की वजह से हुई।

चलते चलते 

१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही विद्रोह, आप इसे जैसा भी नाम दें, हमारी यादाश्त में अपनी अमिट छाप छोड़ गया है। बचपन से इस विद्रोह के नेताओं, झाँसी की रानी, तांत्या टोपे और बाबू कुंवर सिंह, उनके संघर्ष और त्याग कहानियां और अंग्रेज़ों द्वारा किस क्रूरता से इसका दमन किया गया उसके बारे में तो हमने खूब सुना -पढ़ा है। लेकिन दूसरे पक्ष, अँगरेज़ बच्चे – बूढ़े और औरतें और उनके कष्ट की कहानी हमारी किताबों में नहीं मिलेगी।  इस विद्रोह का कुछ ऐसा ही एकतरफा चित्रण अँगरेज़ इतिहासकारों ने भी किया था और हम भी इसका मानवीय पहलु दिखने में बहुत सफल नहीं रहे।

युद्ध में कुछ भी एकदम काला या सफ़ेद नहीं होता, और १८५७ कोई अपवाद नहीं है।  इस विद्रोह के बारे में पहली बार मेरे गर्व को ठेस तब पड़ी थी जब मैंने सतीचौरा काण्ड के बारे में पढ़ा। धीरे धीरे मैंने यही समझा की ऐसी वारदातें दोनों तरफ से हुई और मासूमों का खून दोनों ने बहाया।

शायद इसलिए रेजीडेंसी को देखना एक दुखी करने वाला अनुभव हो सकता है, ख़ास तौर पे जब आप वहां अकेले हो और इसकी कहानी जानते हो।  कैथरीन मैरी बर्टरम की डायरी मैंने ये पोस्ट लिखते हुए पढ़ी और दुःख से भर उठा।  पांच महीनो में इस ३३ एकड़ के दायरे में हज़ारों लोग मारे गए। रेजीडेंसी के कब्रिस्तान में तो  मैं जा भी नहीं पाया, छोटे बच्चों की कब्रें बर्दाश्त नहीं होती मुझसे। आज़ादी की कीमत सबको चुकानी पड़ती है, जिनसे छीनी गयी हो उन्हें और जिन्होंने छीनी हो उन्हें भी।

१८५७ के विद्रोह ने सदियों से कुचले गए हिंदुस्तान को शायद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अपना गुस्सा जताने का मौका दिया।  भले ही ये विद्रोह कुचल दिया गया लेकिन इसके नतीजों ने इस देश का रूप बदलने में बड़ी भूमिका निभाई।  आज हमारे मन पर पड़े निशान भले ही भर गए हो लेकिन कई जगहों पर आज भी दिखते हैं, जैसे रेजीडेंसी की टूटी फूटी दीवारों पर।

भूलना नहीं है …