बनारस के साथ हमारा रिश्ता काफी पुराना है। आज़ादी के बाद जब मेरे नाना नानी पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी बनकर कर आये तो बिहार में बसने से पहले उन्हें बनारस में पनाह मिली। यहीं मेरी माँ, एक मासी और मामा का जन्म हुआ। आज जब मैं इस कहानी पर काम कर रहा था तब माँ बगल में बैठ कर अपने बचपन की कहानियां सुना रही थी जब वो और मासी केदार घाट के शिव मंदिर पर छुपा छुपाई खेलते थे। माँ को एक बार वहां जाकर देखने का मन करता है कि कुछ बदला या सबकुछ वैसा ही है। बचपन से बनारस की ऐसी कई कहानियों सुनता आया हूँ। घर जैसा ही लगता है।
बनारस की मेरी पहली यादें
बनारस की मेरी पहली यादें १९९० के दशक की हैं। तब मैं एक हमेशा बीमार रहने वाला बच्चा हुआ करता था और अपने माता पिता के साथ पहली बार वहां एक आयुर्वेदिक वैद्य के यहाँ इलाज के लिए गया था। बिहार के बाहर मेरी ये पहली यात्रा थी, और इस शहर ने मन मोहने में ज्यादा वक़्त नहीं लिया। आज भी मुझे याद है तुलसी मानस मंदिर, जहाँ रोबोट जैसी पौराणिक कथाओं की चलती फिरती झांकियां लगी हुई थी। मैंने अपनी पहली मिस्सी रोटी भी उधर ही एक एक मारवाड़ी बासे में खायी और आज तक की सबसे बढ़िया राबड़ी का मज़ा लिया। एक बार जब वहां की धुल मिटटी, भीड़ और अफरा तफरी की आदत हो जाए तो फिर इस शहर से प्यार करना ज्यादा मुश्किल नहीं।
एक बार ऐसी ही एक यात्रा पर मैं वहां अपने पिता के साथ गया। हमने पीपा पुल से गंगा नदी को पार किया और रामनगर किले जा पहुंचे। मैंने पहली बार कोई किला देखा था; यूँ तो बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन बचपन में सब भव्य ही लगता है। वहां की सबसे मज़ेदार चीज़ थी हाथी दांत का बना हुआ शतरंज का एक बोर्ड जिस पर हाथी दांत के सिपाही, घोड़े, ऊँट और हाथी एकदम असली से दिखते थे। ऐसे बोर्ड पे शतरंज खेलने में कितना मज़ा आता! वैसे तो वहां हाथी दांत और चांदी की बनी एक बग्घी भी थी लेकिन उस बोर्ड की बात ही अलग थी। ऐसी कई छोटी छोटी यादें बनारस के साथ जुडी हुई हैं।
१९९२ में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद देश में जो गड़बड़ी मची उसकी वजह से हमारा बनारस जाना छूट गया। बाद में वो वैद्य जी भी चल बसे और अगली बार मैं उस शहर में २००१ में आई आई टी की परीक्षा देने ही जा पाया। तब जाके मैंने पहली बार बी. एच. यू. देखा और जाना कि विश्व विद्यालय ऐसे छोटे शहरों जितने बड़े भी होते हैं। उसी यात्रा में अपने दोस्त मनीष के साथ जब वहां के हर घाट पर घुमा तब पहली बार मुझे ऐसा महसूस हुआ कि ये शहर मुझे बहुत प्यारा लगता था। आज करीब २० साल बाद भी बनारस से वो प्यार वैसा ही है, शायद इस शहर के जैसा ही शाश्वत।
कुछ शब्द बनारस के बारे में
“Benaras is older than history, older than tradition, older even than legend and looks twice as old as all of them put together.”
– Mark Twain
दुनिया का सबसे पुराना शहर जो आज भी आबाद है, बनारस, वाराणसी या काशी, आप जिस नाम से भी इसे पुकारें, इसे भारतीय सभ्यता का एक जीता जागता आईना कहना बुरा नहीं होगा। सदियों से हिन्दुओं के सबसे पवित्र माने जाने वाले इस शहर की गंगा-जमुनी तहज़ीब ने कई मतों और सम्प्रदायों को अपने यहाँ शरण दी और अपने प्यार से सींचा। काल से भी पुराने इसके घाटों ने हमेशा से ज्ञान और शांति की तलाश में आने वाले हर भिक्षु को अपनी गोद में जगह दी। कोई यहाँ से खाली हाथ नहीं जाता।
आखिर वो कौन सी चीज़ है जो बनारस को इतना ख़ास बनाती है?
यह समझना तो थोड़ा आसान है कि ऐसे भीड़ भाड़ वाले बेतरतीब शहर से कोई खब्त कैसे हो सकता है, लेकिन इतनी जल्दी इससे प्यार कैसे हो जाता है उसे समझने के लिए आपको बनारस आना पड़ेगा। या तो आप तुरंत ही इससे चिढ़ने लगेंगे, या फिर ये शहर हमेशा के लिए आपका अपना हो जायेगा। महसूस करने की बात है, शब्दों में कैसे बयान की जाए?
तो भाई ये एक ऐसा शहर है जहाँ आपको मंदिरों की घंटियां और मस्जिद की अज़ान एक सुर में गाते हैं। जहाँ बाबा विश्वनाथ के प्यार में सधती बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की तान और ताज़िये के जुलुस में जाते हुए हिन्दू मिलेंगे। बनारस में कोई व्यस्त नहीं दिखता, लेकिन ये शहर कभी सोता भी नहीं। यहाँ का खाना लज़ीज है, यहाँ की जुबान इसके पान की तरह मीठी है; एक तसल्ली सी महसूस होती हैं यहाँ। ऐसे शोर शराबे में भी लोग खुश से महसूस होते हैं, वो ए. सी. क्यूबिकल वाली बेचैनी यहाँ नहीं दिखती। फिर भी जब लोग हैरान होते हैं की मुझे बनारस से इतना प्यार क्यों है, तो समझा नहीं पाता मैं उन्हें। बस है तो है।
बात बनारस की हो रही हो और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहेब का जिक्र न आये ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे तो उनका जन्म डुमरांव में हुआ लेकिन बनारस ही उनकी कर्मभूमि रहा। यहीं पर भारत का वह रत्न ऐसा तराशा गया कि उसकी चमक सारी दुनिया में फैली। इतिहास के सबसे महान शहनाई वादक, बिस्मिल्लाह खान बनारस की साझी संस्कृति की सबसे बुलंद तस्वीरों में से एक रहेंगे।
यह बाबा का २००५, शायद उनका आखिरी, का एक इंटरव्यू है जो शेखर गुप्ता जी ने लिया था। उनके शब्दों से आप शायद इस शहर को और बेहतर समझ सकेंगे।
यात्रा
वैसे तो ऐलाहाबाद से बनारस की दुरी बस १३० कि मी है लेकिन ट्रैफिक जाम और बंद सड़कों की वजह से हमें ये सफर तय करने में ८ घंटे से ज्यादा लगे। जब तक हम बनारस पहुंचे, पूरा दिन निकल चुका था और बमुश्किल इतना ही समय बचा था कि हम राज घाट पर पहुंच सकें और एक बजरे पर बैठ कर गंगा आरती देखने निकल जाएँ।
नमामि गंगे
हमारा बजरा काफी बड़ा था और आराम से ५०-६० लोग एक बार में उस पर सवारी कर सकते थे। जब तक हम घाट पर पहुंचे, सूरज डूब चुका था और बत्तियां जल गयी थी. बनारस मेरी पिछली यात्रा से अब तक काफी कुछ बदल गया है और उसमे से बहुत कुछ अच्छे के लिए ही लग रहा रहा था। इतने सारे एल इ डी बल्बों का शौक क्यों वो तो पता नहीं लेकिन जो भी था अच्छा दिख रहा था।
अब जाड़ों की शाम थी तो घाटों पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। इक्का दुक्का लोग कहीं कहीं बैठे थे और कुछ बच्चे लैंप की रौशनी में खेल रहे थे। बड़ी शान्ति थी, गंगा का चाँद की रौशनी में चमकता पानी और रौशनी में नहाये वो घाट, बजरे के मोटर की धीमी दुक-दुक के सिवा कोई आवाज़ भी नहीं।
आगे कुछ दूर पर चहल पहल थोड़ी ज्यादा दिख रही थी। जैसे जैसे हम पास आते गए, कुछ बड़े, जाने पहचाने घाट सामने आने लगे। कैमरे तो थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
“What always fascinates me is how the people always seem to step into their own time warp. Each ritual in Varanasi is almost a festival of
– Raghu Rai
जहाँ मौत एक कविता है
सदियों से सभी जातियों, प्रांतों और सम्प्रदायों के हिन्दुओं ने जीवन मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए बनारस का रुख किया है। यह शहर उन्हें मोक्ष की उम्मीद देता है। थोड़ा अजीब लगे लेकिन मरने के लिए आते हैं कई लोग यहाँ। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों की चिताएं कभी बुझती नहीं, हमेशा कोई न कोई पहुँचा रहता हैं इन घाटों पर, मिट कर आज़ाद हो जाने के लिए।
सच पूछिए तो इन घाटों से गुजरना इतना आसान भी नहीं होता। बड़ा अजीब लगता है देखना, मानव शरीरों को ऐसे जलते हुए। घी और अगरबत्तियों के बीच वो महक भी नाक में आ ही जाती है। फिर भी मुश्किल होता है खुद को रोक पाना, नज़र वही रुक जाती है…
बनारस में मौत इतनी डरावनी नहीं लगती। यूँ कहिये कि यहाँ मौत जीवन का एक हिस्सा है, या शायद जीवन की यात्रा का अगला पड़ाव। जब शुरू शुरू की हिचक दूर हो जाती है तो शायद हमको भी आदत पड़ जाती है। बनारस जीवन और मृत्यु को बड़ी सरलता से अपना लेता है, आप भी थोड़े से सहज हो जाते हैं और कुछ कुछ भाग्य पे छोड़ देना सिखने लगते हैं। उन जलती हुई चिताओं को देखते हुए जब उनकी गर्मी को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था तब बहुत याद आ रही थी अपने कुछ प्यारे परिवार जनो की जिन्होंने अपनी अंतिम यात्रा इन्ही घाटों से शुरू की। शायद कभी मैं भी…
गंगा आरती
बनारस की गंगा आरती बहुत पुरानी परंपरा नहीं है, लेकिन कम समय में ही इसने अपनी एक ख़ास पहचान बना ली है। आरती के समय पत्तों पर छोटे छोटे दिए हरिद्वार, ऋषिकेश और वाराणसी में गंगा में बहाये जाते हैं जो देखने में बड़ा ही सुन्दर लगता है। वैसे तो हमने ऐलाहाबाद में परमार्थ आश्रम की गंगा आरती देखी थी लेकिन बनारस वाली की बात ही अलग है। यहाँ आरती दशाश्वमेध घाट, जो बनारस का शायद सबसे बड़ा घाट है, में होती है। लोग शाम से ही जुटना शुरू कर देते हैं और ७ बजे से आधे घंटे के लिए ऐसा समा बांधता है की क्या कहें। हमने गंगा आरती थोड़ी दूर से अपने बजरे की छत से देखी। दशाश्वमेध घाट दुल्हन की तरह सजा हुआ था और सैकड़ो लोग घाट पर बैठ कर और नावों से दर्शन कर रहे थे। एक बार कभी और करीब से यह आरती देखना चाहूंगा।
मैं इश्क़ लिखूं
तुम बनारस समझना
बनारस के घाटों पर जाड़े की एक सुबह
ऐसा कहते हैं कि लखनऊ की शामें और बनारस की सुबहें ऐसी होती हैं कि कोई हमेशा याद रखे। अब लखनऊ की शाम तो हमने देख ही ली थी, आज बनारस की सुबह का नज़ारा करने का मौका था। सुबह हमारी एक हेरिटेज वाक होने वाली थी, तो हमने तय किया कि उसके शुरू होने से पहले हम घाटों का एक चक्कर लगा आएंगे। फिर क्या था, हम सुबह सुबह उठ गए, एक टैक्सी पकड़ी और पहुंच गए राजघाट। वहां थोड़े मोल भाव के बाद एक नाव भी मिल गयी जो हमें सारे घाट दिखाते हुए अस्सी छोड़ देती।
ये सुबह वाली नाव की सवारी हमेशा याद रहेगी। जब हमने शुरू किया तो अँधेरा अभी थोड़ा बचा हुआ था। धीरे धीरे पूरब की तरफ लाली दिखने लगी और निकलते हुए सूरज की रौशनी में घाट और वो खूबसूरत इमारतें दमकने लगीं। शायद भूल सा गया था अचरज भरी आँखों से किसी नयी चीज़ को देखना, बचपन का वो वक़्त फिर याद आ गया जब नया नया कितना कुछ था। गंगा के तट के साथ साथ बहते हुए मैं तैर रहा था हमारी सभ्यता के सनातन इतिहास में, पुराणों और किंवदंतियों में, नंदन और चंदामामा की कहानियों में, नानी की यादों में और फेलुदा के जासूसी कारनामों में। रात को ठीक से सोया नहीं था और थकान बहुत ज्यादा थी, लेकिन गंगा की लहरों में हिचकोले खाते हुए सुबह की ठंढी हवा जब चेहरे से टकराई, सब कुछ ठीक होता सा लगा।
तो हम अस्सी घाट पर उतर गए, थोड़ी पूजा अर्चना देखी और कुछ तसवीरें खींची। शहर जागने लगा था और लोग घाटों पर आना शुरू हो चुके थे। कुछ पण्डे भी आ गए थे अपनी जगहों पर और मेरी मित्र कविता ने एक जने को पकड़ के पूजा पाठ करवाया और तब तक हम थोड़ा इधर उधर घूम लिए।
अस्सी आकर बाकी लोग हेरिटेज वाक के लिए निकल गए लेकिन हम दोनों का अभी जाने का मन नहीं था। हमने सोचा कि सारे घाटों का एक चक्कर और लगा लेते हैं। १५ साल पहले मैंने एकबार ये किया था और बनारस को इस तरीके से दोबारा देखने का मौका गंवाने का कोई इरादा नहीं था।
घाटों पर चल कर वापिस आते हुए हमें इस शहर की जिंदगी को थोड़ा और नज़दीक से देखने का मौका मिला। हर कुछ दुरी पर एक नया घाट आता है, अपने अलग इतिहास और कहानियों के साथ। आपको बस थोड़े सब्र और ध्यान से उन्हें सुनना है। साधु संत सुबह के ध्यान में रमे हुए दिख जाते हैं, पंडितों की दुकाने भी सजना शुरू हो जाती हैं। कई लोग तो बस वहां होते हैं, कुछ गप्पे लड़ते हुए, कुछ अखबार पढ़ते हुए और कुछ ऐसे ही बैठे हुए। सब का कुछ न कुछ करना जरुरी नहीं यहाँ। भारत के कई रंग यहाँ की सुबह में दिख जाते हैं।
अच्छी थी वो सुबह भी, बनारस के रंग में रंग के हम भी एकदम बनारसिया हो गए। खूब बातें हुई, कई पुराने चिट्ठे खुले। मेरी मित्र को तो एक पुराने साधु दोस्त भी मिल गए जिनसे वो कुछ साल पहले वही घाट पर मिली थी। दोनों एक दूसरे से मिल के बहुत खुश हुए। खूबसूरत गुलेरिआ कोठी में रुक कर हमने चाय भी पी। हरिश्चंद्र घाट पहुंचते पहुंचते जब होटल के चेक आउट का वक़्त नज़दीक आने लगा तो हम ऊपर चढ़कर कुछ तंग गलियों की भूल भूलैया से होते हुए एक चौक पर जा पहुंचे ऑटो लेने।
बाद में मैं यात्रा के अपने दूसरे साथी, शुभ के साथ वापिस अस्सी पहुंच गया। सारा दिन हम घाटों पर यही घूमते रहे, कुछ अजूबे देखे, कुछ अजूबों से बात की, और ढेर सारी तसवीरें ली। वैसे बनारस की दोपहर वहां की सुबह जीती जादुई नहीं होती, सुबहों की बात ही अलग है।
मुझे नहीं लगता कि इस शहर और मेरी मुलाकात अभी ख़त्म हुई है, बहुत कुछ बचा है ढूंढने को, बहुत कुछ देखना है। बहुत सी तसवीरें अभी भी बाकी हैं। फिर से वापिस जाऊंगा तो जरूर, देखते हैं कब मौका मिलता है…
ये पोस्ट पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
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