गस्त का महीना था और हम पटना की बेमौसम गर्मी में पक रहे थे। कड़कड़ाती धुप में बाहर निकलना मुश्किल था और ऐसा महसूस ही नहीं हो रहा था कि दिन बरसात के हैं। फिर भी आवारा मन कहाँ मानने वाला था? एकता को बिहार के गौरव की झलक दिखानी थी और राजगीर – नालंदा से बेहतर क्या हो सकता था? ज्यादातर लोग राजगीर के बारे में नहीं जानते, उन्हें नहीं पता इसके इतिहास और भारत की कथा में इसके महत्वपूर्ण स्थान के बारे में। तो ये छोटा सा पोस्ट है राजगीर और मगध के गौरव को समर्पित, इस उम्मीद से कि इस खूबसूरत जगह को और सम्मान मिले और इसके स्मारक सुरक्षित रहे।

इतिहास का साक्षी

चाहे भीम और जरासंध की किम्वदंतियां हो या बुद्ध, महावीर, बिंबसार और अजातशत्रु की कथाएं, राजगीर या राजगृह (राजाओं की नगरी) वो कड़ी है जो उन्हें एक सूत्र में बांधती है। सात पहाड़ियों से घिरी हुई शक्तिशाली मगध राज्य की ये राजधानी महाभारत काल से पांचवी सदी ईसा पूर्व तक, ये नगरी पूर्वी भारत में सत्ता का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र रही, जब तक अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र की स्थापना का निश्चय न किया। ये वो नगरी है जहाँ गौतम बुद्ध गृद्धकूट के शिखर पर तपस्या करते हुए अपना समय बिताते थे, और जहाँ महा कस्सप की छत्रछाया में पहले बौद्ध सम्मलेन का आयोजन हुआ। भगवान् महावीर ने अपने जीवन के १४ साल राजगीर और पावापुरी (जहाँ उनका परिनिर्वाण हुआ) में व्यतीत किये। आज इसके शांत, थोड़े उजड़े हुए रूप को देख कर इसके पुरातन गौरव का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल होता है। ३५ शताब्दियाँ और असंख्य महाशक्तियों का उत्थान और पतन देखा है इसके खंडहरों ने।

बदलाव की बयार

पटना से राजगीर तक की सड़क अच्छी थी, एक सुखद आश्चर्य, और हमें कोई दिक्कत नहीं हुई। बरसात की उफनती हुई गंगा हमारे साथ साथ चल रही थी और कहीं कहीं तो नदी का पानी मानो सड़क पर आ जाने को तत्पर था। हम एक जगह ठेठ बिहारी स्टाइल का कचोरी – घुघनी खाने रुके। एकता ने आदत के अनुसार सैंडविच आर्डर किये, और मेरी गरम गरम कचोरियों को देख कर बहुत पछतायी। फिर उसने मेरी प्लेट साफ़ कर दी और मुझे एक और के लिए कहना पड़ा। सैंडविच पैक हो गए।

स्कूल के दिनों में जब मैं पहली बार राजगीर गया था तो ये जगह एक बहुत ही लोकप्रिय पर्यटक आकर्षण हुआ करती थी। पश्चिम बंगाल से आने वाले सैलानीयो का जमावड़ा लगा रहता था, यहाँ तक की दुकानों की तख्तियां भी बांग्ला में लिखी होती थी। फिर लालू-राबड़ी के जंगल राज में अपराधियों और नक्सलियों का बोलबाला इतना बढ़ गया की शरीफ लोगो ने उधर जाना ही छोड़ दिया। हुकूमत बदलने के साथ हालात काफी सुधरे हैं और फिर से भीड़ भाड़ देख के अच्छा लगा।

राजगीर शहर, तांगे और पालकी

राजगीर में प्रवेश करते ही यहाँ के ऐतिहासिक महत्व के चिन्ह हर जगह दिखते हैं। ३००० साल पहले बनी एक सिक्लोपियन दीवार आज भी शहर को घेरती है, और यहाँ वहां बिखरे खँडहर उस भूले बिसरे मगध की कहानी कहते जान पड़ते हैं। यहाँ अजातशत्रु का किला है, बुद्ध का समकालीन पितृहन्ता राजा जिसने अपने पिता को कारागार में फेक दिया। एक है जरासंध का अखाड़ा जहाँ कहते हैं भीम ने जरासंध को एक मल्ल्युद्ध में हराकर मार दिया। जीवकामावन जहाँ वैद्यराज जीवक ने बुद्ध का उपचार किया। इस जगह से इतनी कहानियां जुडी हैं की समझ में नहीं आता कि मिथक कहाँ ख़त्म होते हैं और इतिहास कहाँ से शुरू होता है। बीते हुए समय के कुछ निशान जैसे जमीन पे बने रथ के चिन्ह और गुफाओं की दीवारोँ पर खुदे हुए शंख लिपि के सन्देश आज भी इतिहासकारों को चकराते हैं।

वेणुवन के तालाब की सीढ़ियों पर कांवरिये

वेणुवन

सबसे पहले हम वेणु वन पे रुके। कच्चे खिलाडियों को ये साधारण सा बग़ीचा दिखेगा, लेकिन इसे हलके लेने की गलती न करें। करीब २५०० साल पहले यहाँ एक बांस का जंगल हुआ करता था, जो बिम्बिसार ने बुद्ध को भेट में दिया था ताकि वो राजगृह आने पर वहां रुक सकें। बुद्ध का प्रिय निवास था ये। एक छोटा सा तालाब भी है वेणुवन के बीचोबीच जहाँ अपने निवास के समय बुद्ध स्नान किया करते थे। जब आप कभी वहां जाए तो एक बार आखें बंद करके महसूस कीजिये तब की गरिमा, अजीब सा लगेगा।

जापानी मंदिर

वेणुवन के ठीक पीछे इंडो-जापानी शैली में बना हुआ एक पैगोडा है, तो हम वहां भी चले गए। अंदर बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा है, कमलासन में बैठे हुए, एक हाथ अभयदान की मुद्रा में उठा हुआ। बहुत शान्ति है यहाँ, और चुँकि ये पैगोडा विश्व शान्ति को समर्पित है, तो उचित भी है। एक छोटी सी चित्रदीर्घा है जहाँ अणु युद्ध की  वीभत्सता को दर्शाते हुए हिरोशिमा और नागासाकी के चित्र लगे हैं। कमजोर दिल वाले कृपया देखें, और शान्ति का संकल्प लें।

वीरायतन

जापानी मंदिर के बाद हम गए वीरायतन, १९७० में स्थापित एक जैन संस्था जो एक नेत्र अस्पताल, हड्डियों का अस्पताल और कई दूसरी सामाजिक संसथान चलती है। वीरायतन में ब्राह्मी कला मंदिरम के नाम से एक संग्रहालय और कला दीर्घा है जहाँ अनेक झांकियों और भित्तिचित्रों के द्वारा जैन धार्मिक ग्रंथों की कहानियां दर्शायी गयी हैं। अहिंसा और करुणा इस संग्रहालय के प्रमुख स्तम्भ हैं। इन  झांकियों से हमें २००० साल पहले के भारत भी एक बढ़िया तस्वीर मिलती है। अफ़सोस की फोटोग्राफी की मनाही है और हम वहां कोई तस्वीर नहीं ले सके।  लेकिन अच्छी जगह थी।

मनियार मठ

गर्मी बेतहाशा बढ़ रही थी और हमने कुछ जगहों को छोड़ सीधा शान्ति स्तूप जाने का सोचा। लेकिन इतना समय था कि मैं एकता को दो जगहें और दिखा सकता, और उनमे से एक था मनियार मठ।

मनियार मठ गुप्त काल में बना, नागदेवता शीलभद्र को समर्पित एक पूजा स्थल है, जिसके निर्माण का कारण और परिस्थितियां आज भी रहस्य हैं। खुदाई में यहाँ नागों की ढेरो मूर्तियां मिली। वहां खड़े दरबान ने बताया कि यह स्मारक कभी एक बौद्ध स्तूप भी रहा। स्तूप की खोखली हो चुकी दीवार आज एक कुँए की तरह दिखती है जहाँ आस पास के लोग मन्नत के लिए चढ़ावा चढ़ाते हैं।

सोन भण्डार

इतिहास की परतों में दबा हुआ सोन भण्डार एक और ऐसा स्मारक है जिसके बारे में हमें तथ्य कम और दंतकथाएं ज्यादा सुनने को मिलते हैं। जरासंध का अखाड़ा के काफी  पास है यह जगह, वैभव पहाड़ी की तलहटी में दो मानवनिर्मित गुफाएं जिनके बारे में ऐसा कहते हैं कि  यहाँ बिम्बिसार की रानी का छुपाया हुआ खज़ाना रखा है, जो मन्त्रों के द्वारा सुरक्षित है।

अंग्रेज़ों के ज़माने में ये ख़ज़ाने वाली चर्चा इतनी गरम हो गयी कि, कहते हैं उन्होंने गुफा के द्वार को बारूद से उड़ाने की भी कोशिश की, सफलता नहीं मिली। दरवाज़ा आज भी बुलंद है, और सारे राज़ अंदर दफ़न।

एक ज्यादा विश्वास करने लायक कहानी है कि पहली सदी में जैन मुनि वैरादेवा ने यहाँ प्रवास किया। पूर्वी गुफा में सुन्दर जैन मूर्तियां हैं। दीवार पे ढेर सारे शंख लिपि के आलेख खुदे हैं, जिन्हे आज तक पढ़ा नहीं जा सका।

सोन भण्डार की जैन मूर्तियां

विश्व शान्ति स्तूप

जापानी सहयोग से  १९६९ में निर्मित विश्व शान्ति स्तूप हमारी राजगीर यात्रा का आखिरी पड़ाव था। यह स्तूप रत्नागिरी पर्वत  पर बना हुआ है जिसके सामने गृद्धकूट पर्वत हैं जहाँ बैठकर भगवन बुद्ध ध्यान करते थे।ऊपर तक सीढ़ियों या रज्जुमार्ग से जा सकते हैं,  हमने गरमी और थकान को  देखते हुए आसान तरीका चुना।

राजगीर का रज्जुमार्ग शायद स्मारक जितना ही पुराना है, अगर आपने देवआनंद साहेब की जॉनी मेरा नाम देखी है तो वादा तो निभाया गाने में इसे देखा होगा। इस्पात के रस्से से लटकी हुई जर्जर कुर्सियां नीचे का खूबसूरत नज़ारा तो दिखाती हैं, लेकिन डर भी लगता है।  वैसे डर  के आगे जीत और समय की बचत है।

विश्व शान्ति स्तूप खूबसूरत हैं, दूध की तरह सफ़ेद और आकाश को छूता हुआ भारतजापान मैत्री और वैश्विक शान्ति को समर्पित यह स्मारक दुसरे युद्ध के बाद बने हुए उन ८० स्तूपों में से है जो जापान ने जगह जगह बनाये हैं। चारो दिशाओं को देखती बुद्ध की चार  प्रतिमाएँ हैं जो स्वर्ण जड़ित दिखती हैं। प्रदक्षिणा पथ से आप स्मारक का चक्कर लगाकर प्रार्थना कर सकते हैं।  पास में ही शैली में एक बौद्ध मंदिर बना है जहाँ भिक्षु मन्त्रों का जाप  करते रहते हैं। सारा माहौल बहुत ही शांत और सौम्य होता है। हमने यहाँ थोड़ी देर रुक कर जीवन के तात्पर्य के बारे में मनन  किया, और फिर हार मान कर उसी रज्जुमार्ग से वापिस अपनी तामसिक दुनिया में चले गए।

तो ये था राजगीर, बिहार के खोये हुए गौरव का मूक साक्षी। और भी कई जगहें हैं वहां जैसे गरम पानी के झरने वगैरह, जहाँ हम जा नहीं पाए; बहुत खूबसूरत जगह है, कभी जरूर जाईये वहां।

नोट: यह पोस्ट सबसे पहले Shadows Galore के अंग्रेजी संस्करण में यहाँ प्रकाशित हुआ था।